तुलसीदास के दोहे अर्थ सहित
1. जल को गये लक्खन हैं लरिका,परिखौ,पिय!छाँँह घरीक हैं ठाढे।
पोंछि पसेउ बयारि करौं,अरु पायँ पखरिहौं भूभुरि डाढे”।।
तुलसी रघुबीर प्रिया स्रम जानि कै, बैठि बिलंब लौं कंटक काढे।
जानकी नाह को नेह लाख्यौं, पुलको तनु बारि बिलोचन बाढे।।
अर्थात - श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के साथ वनवास की ओर चल पड़े हैं सीता जी के माथे पर पसीने की बूँदें छलक आई है तुलसीदास जी ने उनकी व्याकुलता और उनके प्रति श्रीराम के प्रेम का सजीव वर्णन इस पद्य में करते हैं। सीता जी कहती हैं कि लक्ष्मण जल लेने के लिए गए हैं अतः कहीं छाँव में खड़े होकर घड़ी भर के लिए उनकी प्रतीक्षा कर ली जाए तब तक मैं आपका पसीना पोछं कर पंखे से हवा किए देती हूँ और बालू से तपे हुए पैर धोए देती हूँ। तुलसीदास जी कहते हैं जब राम ने देखा कि राम जानकी थक गई है तो उन्होंने बहुत देर तक बैठकर उनके पैरों से कांटे निकाले। जानकी सीता ने अपने स्वामी के इतने प्रेम को देखा तो उनका शरीर पुलकित हो उठा और उनकी आँखों में आँसू छल छला आए।
2. रानी मैं जानी अजानी महा,पबि पाहन हूँ ते कठोर हियो है।
राजहु काज अकाज न जान्यो, कह़ो तिय को जिन कान कियो है।।
ऐसी मनोहर मूरति ये, बिछुरे कैसे प्रीतम लोग जियो है?
आँखिन में सखि! राखिबे जोग, इन्हे किमि कै बनबास दियो है?।।
अर्थात - इस पद में तुलसीदास जी ग्रामीण स्त्रियों के माध्यम से राजा दशरथ और कैकेयी की निष्ठुरता का वर्णन करते हैं। गांव की एक महिला कहती है कि रानी कैकेयी बड़ी अज्ञानी है उनका हृदय तो पत्थर और व्रज से भी कठोर है उधर राजा दशरथ ने भी उचित-अनुचित का विचार नहीं किया और केवल स्त्री के कहने पर इन्हें वन में भेज दिया यह तो इतनी लुभावनी मूर्तियाँ है कि इनके बिछुड़ने पर इनके परिवार के लोग किस प्रकार जीवित रहे होंगे। हे सखी! यह तो आँखों में रखने योग्य है, अर्थात सदैव दर्शनीय है तो फिर इन्हें वनवास क्यों दे दिया गया?
3. आपु आपु कहँ सब भलो,अपने कहँ कोई कोई।
तुलसी सब कहँ जो भलो,सुजन सराहिय सोई।।
अर्थात - इस दोहे में तुलसीदास जी ने आज स्पष्ट किया है कि परोपकार करने वाले व्यक्ति की ही इस संसार में सराहना होती है। अपने लिए तो सभी भले होते हैं और सभी अपने लिए भलाई का कार्य करने में लगे रहते हैं। किंतु कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो स्वयं का भला करने के साथ-साथ भी अपने मित्रों एवं सम्बन्धियों के भले के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि इनसे भी श्रेष्ठ वे व्यक्ति होते हैं जो सभी का भला मानकर उनकी भलाई करने में लगे रहते हैं। इस प्रकार के व्यक्तियों की ही सज्जन व्यक्तियों के द्वारा सराहना की जाती है।
4. सुनि सुन्दर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली।
तिरछे करि नैन दै सैन तिन्हें समुझाई कछू मुसकाइ चली।।
तुलसी तेहि औसर सोहै सबै अवलोकति लोचन-लाहु अली।
अनुराग-तड़ाग में भानु उदै बिगसीं मनो मंजुल कंज-कली।।
अर्थात - गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं गांव की स्त्रियों की अमृतमयी वाणी सुनकर जानकी जी समझ गई हैं कि यह स्त्रियाँ बहुत चतुर है घुमा फिरा कर प्रभु के साथ मेरा सम्बन्ध जानना चाहती है। अतः इन्होंने मर्यादा का पालन करते हुए संकेतों के द्वारा उन्हें बता दिया। अपने नेत्र तिरक्षे करके, इशारा करके कुछ समझा कर सीताजी मुस्कुराती हुई आगे बढ़ गई। तुलसीदास जी कहते हैं कि उस अवसर पर वे स्त्रियाँ उनके दर्शन को स्वयं का लाभ मानकर राम की ओर टकटकी लगाए हुए देखती हुई ऐसी शोभा पा रही थी मानो सूर्योदय होने पर प्रेम के तालाब में सुंदर कमल की कलियाँ खिल-खिला उठी हो।
5. बरषत, हरषत लोग सब, करषत लखै न कोई।
तुलसी प्रजा सुभाग ते, भूप भानु सो होई॥
अर्थात - प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी ने सूर्य के माध्यम से अच्छे राजा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि सूर्य जब पृथ्वी से जल को ग्रहण करता है, तो उसे कोई नहीं देखता परन्तु वह सूर्य जब जल बरसाता है, तब लोग प्रसन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार सूर्य के समान न्यायपूर्ण ढंग से कर ग्रहण करने वाला और उस कर के रूप में प्राप्त धन को प्रजा के हित में व्यय करने वाला राजा किसी देश की प्रजा को सौभाग्य से मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास जी का मत है कि राजा को प्रजा से उतना ही कर ग्रहण करना चाहिए, जो न्याय पूर्ण हो। साथ ही कर-रूप में प्राप्त धन को उसे ऐसे कार्य में लगाना चाहिए जिससे प्रजा का कल्याण हो।