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April 16, 2018

Hindi Ghazal Shayari Collection 2018

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हर जनम में....
हर जनम में उसी की चाहत थे; हम किसी और की अमानत थे;
उसकी आँखों में झिलमिलाती हुई; हम ग़ज़ल की कोई अलामत थे;
तेरी चादर में तन समेट लिया; हम कहाँ के दराज़क़ामत थे;
जैसे जंगल में आग लग जाये; हम कभी इतने ख़ूबसूरत थे;
पास रहकर भी दूर-दूर रहे; हम नये दौर की मोहब्बत थे;
इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया; ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे
दिन में इन जुगनुओं से क्या लेना; ये दिये रात की ज़रूरत थे।

 कोई बिजली इन ख़राबों में घटा रौशन करे;
ऐ अँधेरी बस्तियो! तुमको खुदा रौशन करे;
नन्हें होंठों पर खिलें मासूम लफ़्ज़ों के गुलाब;
और माथे पर कोई हर्फ़-ए-दुआ रौशन करे;
ज़र्द चेहरों पर भी चमके सुर्ख जज़्बों की धनक;
साँवले हाथों को भी रंग-ए-हिना रौशन करे;
एक लड़का शहर की रौनक़ में सब कुछ भूल जाए;
एक बुढ़िया रोज़ चौखट पर दिया रौशन करे;
ख़ैर अगर तुम से न जल पाएँ वफाओं के चिराग;
तुम बुझाना मत जो कोई दूसरा रौशन करे।

तेरा चेहरा सुब्ह का तारा लगता है;
सुब्ह का तारा कितना प्यारा लगता है;
तुम से मिल कर इमली मीठी लगती है;
तुम से बिछड़ कर शहद भी खारा लगता है;
रात हमारे साथ तू जागा करता है;
चाँद बता तू कौन हमारा लगता है;
किस को खबर ये कितनी कयामत ढाता है;
ये लड़का जो इतना बेचारा लगता है;
तितली चमन में फूल से लिपटी रहती है;
फिर भी चमन में फूल कँवारा लगता है;
'कैफ' वो कल का 'कैफ' कहाँ है आज मियाँ;
ये तो कोई वक्त का मारा लगता है।

नज़र फ़रेब-ए-कज़ा खा गई तो क्या होगा;
हयात मौत से टकरा गई तो क्या होगा;
नई सहर के बहुत लोग मुंतज़िर हैं मगर;
नई सहर भी कजला गई तो क्या होगा;
न रहनुमाओं की मजलिस में ले चलो मुझको;
मैं बे-अदब हूँ हँसी आ गई तो क्या होगा;
ग़म-ए-हयात से बेशक़ है ख़ुदकुशी आसाँ;
मगर जो मौत भी शर्मा गई तो क्या होगा;
शबाब-ए-लाला-ओ-गुल को पुकारनेवालों;
ख़िज़ाँ-सिरिश्त बहार आ गई तो क्या होगा;
ख़ुशी छीनी है तो ग़म का भी ऐतमाद न कर;
जो रूह ग़म से भी उकता गई तो क्या होगा।

तेरे कमाल की हद...
तेरे कमाल की हद कब कोई बशर समझा;
उसी क़दर उसे हैरत है, जिस क़दर समझा;
कभी न बन्दे-क़बा खोल कर किया आराम;
ग़रीबख़ाने को तुमने न अपना घर समझा;
पयामे-वस्ल का मज़मूँ बहुत है पेचीदा;
कई तरह इसी मतलब को नामाबर समझा;
न खुल सका तेरी बातों का एक से मतलब;
मगर समझने को अपनी-सी हर बशर समझा। 

मेरी रातों की राहत, दिन के इत्मिनान ले जाना;
तुम्हारे काम आ जायेगा, यह सामान ले जाना;
तुम्हारे बाद क्या रखना अना से वास्ता कोई;
तुम अपने साथ मेरा उम्र भर का मान ले जाना;
शिकस्ता के कुछ रेज़े पड़े हैं फर्श पर, चुन लो;
अगर तुम जोड़ सको तो यह गुलदान ले जाना;
तुम्हें ऐसे तो खाली हाथ रुखसत कर नहीं सकते;
पुरानी दोस्ती है, की कुछ पहचान ले जाना;
इरादा कर लिया है तुमने गर सचमुच बिछड़ने का;
तो फिर अपने यह सारे वादा-ओ-पैमान ले जाना;
अगर थोड़ी बहुत है, शायरी से उनको दिलचस्पी;
तो उनके सामने मेरा यह दीवान ले जाना।

भड़का रहे हैं आग...
भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागार से हम;
ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम;
कुछ और बड़ गए अंधेरे तो क्या हुआ;
मायूस तो नहीं हैं तुलु-ए-सहर से हम;
ले दे के अपने पास फ़क़त एक नज़र तो है;
क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम
माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके;
कुछ ख़ार कम कर गए गुज़रे जिधर से हम।

फिर उसके जाते ही दिल सुनसान हो कर रह गया;
अच्छा भला इक शहर वीरान हो कर रह गया;
हर नक्श बतल हो गया अब के दयार-ए-हिज्र में;
इक ज़ख्म गुज़रे वक्त की पहचान हो कर रह गया;
रुत ने मेरे चारों तरफ खींचें हिसार-ए-बाम-ओ-दर;
यह शहर फिर मेरे लिए ज़ान्दान हो कर रह गया;
कुछ दिन मुझे आवाज़ दी लोगों ने उस के नाम से;
फिर शहर भर में वो मेरी पहचान हो कर रह गया;
इक ख्वाब हो कर रह गई गुलशन से अपनी निस्बतें;
दिल रेज़ा रेज़ा कांच का गुलदान हो कर रह गया;
ख्वाहिश तो थी "साजिद" मुझे तशीर-ए-मेहर-ओ-माह की;
लेकिन फ़क़त मैं साहिब-ए-दीवान हो कर रह गया।

ज़रा-सी देर में...
ज़रा-सी देर में दिलकश नज़ारा डूब जायेगा;
ये सूरज देखना सारे का सारा डूब जायेगा;
न जाने फिर भी क्यों साहिल पे तेरा नाम लिखते हैं;
हमें मालूम है इक दिन किनारा डूब जायेगा;
सफ़ीना हो के हो पत्थर, हैं हम अंज़ाम से वाक़िफ़;
तुम्हारा तैर जायेगा हमारा डूब जायेगा;
समन्दर के सफर में किस्मतें पहलू बदलती हैं;
अगर तिनके का होगा तो सहारा डूब जायेगा;
मिसालें दे रहे थे लोग जिसकी कल तलक हमको;
किसे मालूम था वो भी सितारा डूब जायेगा।

सीने में जलन...
सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान-सा क्यों है;
इस शहर में हर शख़्स परेशान-सा क्यों है;
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे;
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान-सा क्यों है;
तन्हाई की ये कौन-सी मंज़िल है रफ़ीक़ो;
ता-हद्द-ए-नज़र एक बियाबान-सा क्यों है;
हमने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की;
वो ज़ूद-ए-पशेमान, परेशान-सा क्यों है;
क्या कोई नई बात नज़र आती है हममें;
आईना हमें देख के हैरान-सा क्यों है।

कभी मुझ को साथ लेकर, कभी मेरे साथ चल के;
वो बदल गए अचानक, मेरी ज़िन्दगी बदल के;
हुए जिस पे मेहरबाँ, तुम कोई ख़ुशनसीब होगा;
मेरी हसरतें तो निकलीं, मेरे आँसूओं में ढल के;
तेरी ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ के, क़ुर्बाँ दिल-ए-ज़ार ढूँढता है;
वही चम्पई उजाले, वही सुरमई धुंधल के;
कोई फूल बन गया है, कोई चाँद कोई तारा;
जो चिराग़ बुझ गए हैं, तेरी अंजुमन में जल के;
मेरे दोस्तो ख़ुदारा, मेरे साथ तुम भी ढूँढो;
वो यहीं कहीं छुपे हैं, मेरे ग़म का रुख़ बदल के;
तेरी बेझिझक हँसी से, न किसी का दिल हो मैला;
ये नगर है आईनों का, यहाँ साँस ले संभल के।

नींद की ओस से...
नींद की ओस से पलकों को भिगोये कैसे;
जागना जिसका मुकद्दर हो वो सोये कैसे;
रेत दामन में हो या दश्त में बस रेत ही है;
रेत में फस्ल-ए-तमन्ना कोई बोये कैसे;
ये तो अच्छा है कोई पूछने वाला न रहा;
कैसे कुछ लोग मिले थे हमें खोये कैसे;
रूह का बोझ तो उठता नहीं दीवाने से;
जिस्म का बोझ मगर देखिये ढोये कैसे;
वरना सैलाब बहा ले गया होगा सब कुछ;
आँख की ज़ब्त की ताकीद है रोये कैसे।

कब याद मे तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं;
साद शुक्र की अपनी रातो में अब हिज्र की कोई रात नहीं;
मुश्किल है अगर हालत वह, दिल बेच आए, जा दे आए;
दिल वालो कूचा-ए-जाना में, क्या ऐसे भी हालात नहीं;
जिस धज से कोई मकतल में गया, वो शान सलामत रहती है;
ये जान तो आनी-जानी है, इस जान की तो कोई बात नहीं;
मैदान-ए-वफ़ा दरबार नहीं, या नाम-ओ-नसब की पूछ कहाँ;
आशिक तो किसी का नाम नहीं, कुछ इश्क किसी की जात नहीं;
गर बाज़ी इश्क की बाज़ी है, ओ चाहो लगा दो दर कैसा;
गर जीत गए तो क्या कहने, हारे भी तो बाज़ी मात नहीं।

देखा तो था यूं ही...
देखा तो था यूं ही किसी ग़फ़लत-शिआर ने;
दीवाना कर दिया दिल-ए-बेइख़्तियार ने;
ऐ आरज़ू के धुंधले ख्वाबों जवाब दो;
फिर किसकी याद आई थी मुझको पुकारने;
तुमको ख़बर नहीं मगर इक सादालौह को;
बर्बाद कर दिया तेरे दो दिन के प्यार ने;
मैं और तुमसे तर्क-ए-मोहब्बत की आरज़ू;
दीवाना कर दिया है ग़म-ए-रोज़गार ने;
अब ऐ दिल-ए-तबाह तेरा क्या ख्याल है;
हम तो चले थे काकुल-ए-गेती सँवारने।

तुम न आये एक दिन...
तुम न आये एक दिन का वादा कर दो दिन तलक;
हम पड़े तड़पा किये दो-दो पहर दो दिन तलक;
दर्द-ए-दिल अपना सुनाता हूँ कभी जो एक दिन;
रहता है उस नाज़नीं को दर्द-ए-सर दो दिन तलक;
देखते हैं ख़्वाब में जिस दिन किस की चश्म-ए-मस्त;
रहते हैं हम दो जहाँ से बेख़बर दो दिन तलक;
गर यक़ीं हो ये हमें आयेगा तू दो दिन के बाद;
तो जियें हम और इस उम्मीद पर दो दिन तलक;
क्या सबब क्या वास्ता क्या काम था बतलाइये;
घर से जो निकले न अपने तुम "ज़फ़र" दो दिन तलक।

मै यह नहीं कहता कि मेरा सर न मिलेगा;
लेकिन मेरी आँखों में तुझे डर न मिलेगा;
सर पर तो बिठाने को है तैयार जमाना;
लेकिन तेरे रहने को यहाँ घर न मिलेगा;
जाती है, चली जाये, ये मैखाने कि रौनक;
कमज़र्फो के हाथो में तो सागर न मिलेगा;
दुनिया की तलब है, कनाअत ही न करना
कतरे ही से खुश हो, तो समन्दर न मिलेगा।

तेरे कमाल की हद
तेरे कमाल की हद कब कोई बशर समझा;
उसी क़दर उसे हैरत है, जिस क़दर समझा;
कभी न बन्दे-क़बा खोल कर किया आराम;
ग़रीबख़ाने को तुमने न अपना घर समझा;
पयामे-वस्ल का मज़मूँ बहुत है पेचीदा;
कई तरह इसी मतलब को नामाबर समझा;
न खुल सका तेरी बातों का एक से मतलब;
मगर समझने को अपनी-सी हर बशर समझा।

मैं खुद भी सोचता हूँ...
मैं खुद भी सोचता हूँ ये क्या मेरा हाल है;
जिसका जवाब चाहिए, वो क्या सवाल है;
घर से चला तो दिल के सिवा पास कुछ न था;
क्या मुझसे खो गया है, मुझे क्या मलाल है;
आसूदगी से दिल के सभी दाग धुल गए;
लेकिन वो कैसे जाए, जो शीशे में बल है;
बे-दस्तो-पा हू आज तो इल्जाम किसको दूँ;
कल मैंने ही बुना था, ये मेरा ही जाल है;
फिर कोई ख्वाब देखूं, कोई आरजू करूँ;
अब ऐ दिल-ए-तबाह, तेरा क्या ख्याल है।

वो जो वह एक अक्स है सहमा हुआ डरा हुआ;
देखा है उसने गौर से सूरज को डूबता हुआ;
तकता हु कितनी देर से दरिया को मैं करीब से;
रिश्ता हरेक ख़त्म क्या पानी से प्यास का हुआ;
होठो से आगे का सफर बेहतर है मुल्तवी करे;
वो भी है कुछ निढाल सा मैं भी हु कुछ थका हुआ;
कल एक बरहना शाख से पागल हवा लिपट गयी;
देखा था खुद ये सानिहा, लगता है जो सुना हुआ;
पैरो के निचे से मेरे कब की जमीं निकल गयी;
जीना है और या नहीं अब तक न फैसला हुआ। 

झूठा निकला क़रार तेरा;
अब किसको है ऐतबार तेरा;
दिल में सौ लाख चुटकियाँ लीं;
देखा बस हम ने प्यार तेरा;
दम नाक में आ रहा था अपने;
था रात ये इंतिज़ार तेरा;
कर ज़बर जहाँ तलक़ तू चाहे;
मेरा क्या, इख्तियार तेरा;
लिपटूँ हूँ गले से आप अपने;
समझूँ कि है किनार तेरा;
'इंशा' से मत रूठ, खफा हो;
है बंदा जानिसार तेरा।

कोई चारा नहीं
कोई चारा नहीं दुआ के सिवा;
कोई सुनता नहीं खुदा के सिवा;
मुझसे क्या हो सका वफ़ा के सिवा;
मुझको मिलता भी क्या सज़ा के सिवा;
कोई...
बरसरे-साहिले मुकाम यहां;
कौन उभरा है नाखुदा के सिवा;
कोई...
दिल सभी कुछ ज़ुबान पर लाया;
इक फ़क़त अर्ज़े-मुद्दा के सिवा;
कोई... 
तेरे ही क़दमों में
तेरे ही क़दमों में मरना भी अपना जीना भी;
कि तेरा प्यार है दरिया भी और सफ़ीना भी;
मेरी नज़र में सभी आदमी बराबर हैं;
मेरे लिए जो है काशी वही मदीना भी;
तेरी निगाह को इसकी ख़बर नहीं शायद;
कि टूट जाता है दिल-सा कोई नगीना भी;
बस एक दर्द की मंज़िल है और एक मैं हूँ;
कहूँ कि 'तूर'! भला क्या है मेरा जीना भी। 
बेनाम सा यह दर्द
बेनाम सा यह दर्द ठहर क्यों नही जाता;
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नही जाता;
सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें;
क्या बात है मैं वक्त पे घर क्यूं नही जाता;
वो एक ही चेहरा तो नही सारे जहाँ मैं;
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नही जाता;
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा;
जाते है जिधर सब मैं उधर क्यूं नही जाता;
वो नाम जो बरसों से न चेहरा है न बदन है;
वो ख्वाब अगर है तो बिखर क्यूं नही जाता;
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूं नही जाता;
बेनाम सा यह दर्द ठहर क्यों नही जाता।
एक अजीब सी हालत है...
एक अजीब सी हालत हैं तेरे जाने के बाद;
भूख ही नहीं लगती खाना खाने के बाद;
मेरे पास 8 समोसे थे जो मैंने खा लिए;
1 तेरे आने से पहले 7 तेरे जाने के बाद;
नींद ही नहीं आती मुझे सोने के बाद;
नज़र कुछ नहीं आता आँखे बंद होने के बाद;
डॉक्टर से पूछा इसका इलाज़ दी 4 टैबलेट;
बोला खा लेना 2 जागने से पहले 2 सोने के बाद। 

अपनी यादें...
अपनी यादें अपनी बातें लेकर जाना भूल गये;
जाने वाले जल्दी में मिलकर जाना भूल गये;
मुड़-मुड़ कर देखा था जाते वक़्त रास्ते में उन्होंने;
जैसे कुछ जरुरी था, जो वो हमें बताना भूल गये;
वक़्त-ए-रुखसत भी रो रहा था हमारी बेबसी पर;
उनके आंसू तो वहीं रह गये, वो बाहर ही आना भूल गये।